Ayodhya singh upadhyay jivan parichay-अयोध्या सिंह उपाध्याय

Ayodhya singh upadhyay jivan parichay-अयोध्या सिंह उपाध्याय जीवन परिचय

नमस्कार दोस्तों, इस लेख में आप हरिऔध जी यानी अयोध्या सिंह उपाध्याय की जीवनी के साथ-साथ उनकी उपलब्धियों, साहित्यिक परिचय और कार्यों के बारे में जानेंगे। अयोध्या सिंह उपाध्याय के बारे में अधिक जानने के लिए इस लेख को पूरा पढ़ें। यह जीवनी आपको अपने परीक्षण के लिए अध्ययन करने में मदद कर सकती है, इसलिए इसे अच्छी तरह से पढ़ने के लिए समय निकालें। अगर आपको यह पोस्ट पसंद आए तो आप अपने दोस्तों को भी शेयर कर सकते हैं।

Ayodhya singh upadhyay jivan parichay

जीवन-परिचय : एक दृष्टि में

नामअयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
पिता का नामपं० भोलासिंह
जन्मसन् 1865 ई०
जन्म स्थाननिजामाबाद (आजमगढ़)
शिक्षास्वाध्याय से विभिन्न भाषाओं का ज्ञान
लेखन- विधा नाटक, उपन्यास, काव्य ग्रन्थ
भाषाब्रजभाषा एवं खड़ीबोली
शैलीप्रबन्ध एवं मुक्तक
प्रमुख रचनाएँप्रिय-प्रवास, चोखे-चौपदे, चुभते चौपदे, वैदेही वनवास
निधनसन् 1947 ई०
साहित्य में स्थानहरिऔधजी हिन्दी-साहित्य की एक महान विभूति हैं

अयोध्या सिंह उपाध्याय का जीवन परिचय

हरिऔध जी का जन्म 1865 ई० (संवत् 1922) में आज़मगढ़ जिले के निज़ामाबाद गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम पं० भोलासिंह और माता का नाम रुक्मिणी देवी था। उनके पूर्वज शुक्ल यजुर्वेदी सनाढ्य ब्राह्मण थे, जो बाद में सिख बन गये। मिडिल परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने काशी के क्वींस कॉलेज में प्रवेश लिया, लेकिन ख़राब स्वास्थ्य के कारण उन्हें स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी। इसके बाद उन्होंने घर पर ही फ़ारसी, अंग्रेजी और संस्कृत भाषाओं का अध्ययन किया।

सत्रह वर्ष की उम्र में उनका विवाह हो गया। कुछ वर्षों तक उन्होंने निज़ामाबाद के तहसील स्कूल में पढ़ाया। बाद में 20 वर्षों तक कानूनगो के रूप में कार्य किया। कानूनगो के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद हरिऔधजी ने ‘काशी हिंदू विश्वविद्यालय’ में अवैतनिक अध्यापन कार्य किया। हरिऔध जी के जीवन का उद्देश्य अध्यापन था। उनका जीवन सरल था, उनके विचार उदार थे और उनके लक्ष्य महान थे। सन् 1947* (संवत् 2004) में हरिऔधजी ने अपार प्रसिद्धि प्राप्त कर अपना नश्वर शरीर त्याग दिया।

Ayodhya singh upadhyay jivan parichay

Ayodhya singh upadhyay ka sahityik parichay-साहित्यिक परिचय

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ द्विवेदी युग के प्रतिनिधि कवि एवं गद्यकार थे। हरिऔध जी पहले ब्रज भाषा में कविता लिखते थे। उनकी प्रारंभिक कविताएँ समस्या-प्रधान और छोटी थीं। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें खड़ीबोली में कविता लिखने के लिए प्रेरित किया। अतः आगे चलकर उन्होंने खड़ीबोली में काव्य रचना की और हिन्दी काव्य में अपनी प्रतिभा का अमूल्य योगदान दिया।

अयोध्या सिंह उपाध्याय जी ने कविता को लोकहित एवं मानव कल्याण का प्रेरक साधन स्वीकार किया। उनके काव्य में पौराणिक एवं आधुनिक समाज के प्रसिद्ध लोक नायकों एवं नायिकाओं को प्रतिनिधि स्थान मिला है। भावुकता के साथ-साथ मौलिकता को भी पोषित करने वाले हरिऔधजी की एक और विशेषता काव्य विषयों की विविधता थी। इसी कारण उनके काव्य में भक्ति, रीतिकाल और आधुनिक काव्य के उज्ज्वल पहलुओं का समावेश हुआ है।

‘हिन्दी-साहित्य सम्मेलन ने उनकी काव्य कृति ‘प्रियप्रवास’ पर ‘मंगलाप्रसाद पुरस्कार’ से सम्मानित किया। इसके बाद उन्हें ‘कवि सम्राट’ और ‘साहित्य वाचस्पति’ की उपाधि से भी सम्मानित किया गया। हरिऔध जी को हिन्दी साहित्य की महान विभूति के रूप में सदैव याद किया जाता रहेगा।

अयोध्या सिंह उपाध्याय की रचनाएँ

खड़ीबोली को काव्यभाषा के रूप में स्थापित करने वाले कवियों में अयोध्या सिंह उपाध्याय जी का नाम अत्यंत आदर से लिया जाता है। उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं-

(क) नाटक – ‘प्रद्युम्न – विजय’ तथा ‘रुक्मिणी-परिणय’।

(ख) उपन्यास – हरिऔधजी का प्रथम उपन्यास ‘प्रेमकान्ता’ है। ‘ठेठ हिन्दी का ठाठ’ और ‘अधखिला फूल’ प्रारम्भिक प्रयास की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं।

(ग) काव्य-ग्रन्थ – वस्तुतः हरिऔधजी की प्रतिभा का विकास एक कवि के रूप में हुआ। उन्होंने पन्द्रह से अधिक छोटे-बड़े काव्यों की रचना की। उनके प्रमुख काव्य ग्रन्थ इस प्रकार हैं-

  1. प्रियप्रवास — यह विप्रलम्भ श्रृंगार पर आधारित महाकाव्य है। इसके नायक-नायिका शुद्ध मानवीय रूप में अवतरित हुए हैं। नायक श्रीकृष्ण लोक-संरक्षण तथा विश्व कल्याण की भावना से परिपूर्ण मनुष्य हैं।
  2. रस- कलश — इसमें हरिऔधजी की प्रारंभिक कविताएँ संकलित हैं। ये कविताएँ अलंकृत हैं और काव्य सिद्धांतों को व्यक्त करने के लिए लिखी गई हैं।
  3. चोखे चौपदे तथा चुभते चौपदे- इसमें खड़ीबोली पर आधारित मुहावरों का सौन्दर्य दर्शनीय है। इन मुहावरों में लौकिक जगत् की झलक मिलती है।
  4. वैदेही- वनवास — यह प्रबन्ध-काव्य है। आकार की दृष्टि से यह ग्रन्थ छोटा नहीं है, किन्तु इसमें ‘प्रियप्रवास’ जैसे काव्यत्व का अभाव है।

Ayodhya singh upadhyay jivan parichay

काव्यगत विशेषताएँ

भावपक्ष

अयोध्या सिंह उपाध्याय की कविता में अतीत को वर्तमान की शब्दावली में व्यक्त किया गया है। हरिऔध जी ने ‘प्रियप्रवास’ में भगवान कृष्ण के पारंपरिक रूप को नहीं अपनाया, बल्कि उन्हें एक सामान्य मनुष्य के रूप में चित्रित किया है। कवि ने देशभक्ति और कर्त्तव्यपरायणता के सामने व्यक्तिगत प्रेम को महत्वहीन दिखाकर राधा-कृष्ण को परोपकारिता और लोक कल्याण कार्यों में संलग्न दिखाया है। , राधा सार्वभौमिक प्रेम और सेवा को अपनाती है। दीनों की सेवा और विश्व के प्रति प्रेम की भावना ही कवि की मूल प्रेरणा है।

यशोदा की प्रेमपूर्ण भावनाओं के साथ-साथ राधा का विरह भी हृदयविदारक और मर्मस्पर्शी है। विरहिणी राधा विरह की अग्नि में जलकर विरह स्वरूप बन जाती है। राधा लोक सेवा और दान के लिए अपना सब कुछ त्याग देती है और अपने प्रिय की निरंतर साथी बन जाती है।

प्रकृति चित्रण की दृष्टि से भले ही हरिऔध जी ने कुछ नया समावेश न किया हो, फिर भी आधुनिक काल के कवियों में उनका विशेष स्थान है। ‘प्रियप्रवास’ का स्वरूप अधिक भावनात्मक है। कवि के अनुसार प्रकृति की गतिविधियाँ भी मानवीय भावनाओं के अनुरूप हैं।

कलापक्ष

भाषा- हरिऔधजी ने अपनी विभिन्न काव्य पुस्तकों में विभिन्न प्रकार की भाषा का प्रयोग किया है। जहाँ एक ओर उन्होंने सरल, मुहावरेदार, बोधगम्य और बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है, वहीं दूसरी ओर सरल, शब्द-प्रधान खड़ीबोली का भी प्रयोग अपनी कविता में किया है। उन्होंने ‘प्रियप्रवास’ और ‘पारिजात’ जैसे महाकाव्यों में जटिल संस्कृत वाक्यांशों का भी उपयोग किया है।

‘प्रियप्रवास’ में शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों का प्रयोग हुआ है । कवि ने उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, रूपकातिशयोक्ति, अपह्नुति, व्यतिरेक, सन्देह, स्मरण, प्रतीप, विषम, दृष्टान्त, निदर्शना, अर्थान्तरन्यास आदि अर्थालंकारों द्वारा पात्रों के मनोभावों की सजीव एवं मार्मिक स्थितियाँ चित्रित की हैं।

शैली — उन्होंने अपने काव्य में प्रबंध और मुक्तक दोनों शैलियों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया। इसके अलावा उनके काव्य में ऐतिहासिक, मुहावरेदार, संस्कृत काव्यात्मक, चमत्कारिक तथा अभिव्यक्ति शिल्प की दृष्टि से सरल हिन्दी शैलियों का सफल प्रयोग मिलता है।

सवैया, कवित्त, छप्पय, दोहा आदि इनके प्रिय छन्द हैं और इन्द्रवज्रा, शार्दूलविक्रीडित, शिखरिणी, मालिनी, वसन्ततिलका, द्रुतविलम्बित आदि संस्कृत वर्णवृत्तों का प्रयोग भी इन्होंने किया।

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हिन्दी – साहित्य में स्थान

काव्य के क्षेत्र में भाव, भाषा, शैली, छंद और अलंकार की दृष्टि से हरिऔध जी की काव्य-साधना महान है। वे हिन्दी के सार्वदेशिक कवि माने जाते हैं। उनकी साहित्यिक सेवाओं का ऐतिहासिक महत्व है। निश्चित ही हरिऔध जी हिन्दी साहित्य की महान विभूति हैं।

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अयोध्या सिंह उपाध्याय कौन से युग के कवि हैं?

वे द्विवेदी युग के सुप्रसिद्ध कवि थे। उन्होंने खड़ी बोली काव्य की रचना के माध्यम से पहली बार प्रदर्शित किया कि भाषा की कविता में भी ब्रज भाषा की तरह लालित्य और कोमलता हो सकती है।

खड़ी बोली का प्रथम खंड काव्य कौन सा है?

यदि “प्रियप्रवास” खड़ी बोली का पहला महाकाव्य है, तो “हरिऔध” खड़ी बोली का पहला सच्चा महान कवि है। इसकी रचना 1909 से 1913 के बीच हुई। यह कृष्णकाव्य परंपरा से संबंधित होते हुए भी उससे भिन्न है। “प्रियप्रवास” कविता विरह के बारे में है।

अयोध्या सिंह उपाध्याय जी का उपनाम क्या है?

अयोध्या सिंह उपाध्याय, जिन्हें अक्सर “हरिऔध” के नाम से जाना जाता है, एक हिंदी कवि, लेखक और संपादक थे, जो 15 अप्रैल 1865 से 16 मार्च 1947 तक जीवित रहे।

प्रिय प्रवास महाकाव्य कब प्रकाशित हुआ?

सन् 1914 ई. में हरिऔध जी कृत “प्रिय प्रवास” का विमोचन हुआ। इसके अतिरिक्त, ‘काव्योपवन’ (1909 ई.) और ‘कर्मवीर’ (1916 ई.) उनकी दो अन्य रचनाएँ हैं जो प्रकाशित हो चुकी हैं।

प्रिय प्रवास में कितने सर्ग है?

इसमें 17 सर्ग हैं। हालाँकि कृष्ण और राधा पुस्तक के प्रमुख नायक हैं, कवि ने युग को प्रतिबिंबित करने के लिए कुछ समायोजन किए हैं। इसमें श्री कृष्ण को भगवान के बजाय एक अद्भुत व्यक्ति और सार्वजनिक शख्सियत के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

अयोध्या सिंह उपाध्याय के माता पिता का क्या नाम था?

अयोध्या सिंह उपाध्याय के पिता का पंडित भोला सिंह उपाध्याय और माता का नाम रुक्मिणी देवी था।

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