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Pratap narayan mishra ka jivan parichay-प्रताप नारायण मिश्र

Pratap narayan mishra ka jivan parichay-प्रताप नारायण मिश्र

हेल्लो दोस्तों इस लेख की मदद से आप जानेंगे एक ऐसे लेखक के बारे में जिनका मृत्यु मात्र 38 वर्ष की अल्प आयु में ही हो गयी थी। जिस लेखक की हम बात कर रहे वह प्रताप नारायण मिश्र जी है। आर्टिकल को पूरा पढ़े और जाने इनके जीवन परिचय के बारे में साथ ही कई सारि रचनाओं और साहित्यिक परिचय के बारे में। इस लेख को पढ़कर आप परीक्षा की तैयारी भी कर सकते है। पूरा पढ़कर जाने Pratap narayan mishra ka jivan parichay को।

Pratap narayan mishra ka jivan parichay

प्रताप नारायण मिश्र का संछिप्त परिचय

नामप्रताप नारायण मिश्र
जन्म1856 ई.
जन्म स्थान बैजे गांव ( उन्नव )
पिता का नामसंकटाप्रसाद ( ज्योतिषी )
प्रमुख कृतियाँ कलि-कौतुक, हठी हम्मीर, गौ-संकट, भारत-दुर्दशा, प्रताप पीयूष, अदि रचनाएँ
सम्पादन ब्राह्मण और हिन्दुस्तान
भाषाव्यावहारिक एवं खड़ीबोली
मृत्यु1894 ई.

Pratap narayan mishra ka jivan parichay

प्रताप नारायण मिश्र का जन्म 1856 ई० में उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बैजेगाँव में हुआ था। उनके पिता पंडित संकटा प्रसाद एक ज्योतिषी थे और कानपुर आकर रहने लगे। कानपुर के प्रसिद्ध ज्योतिषी होने के कारण वे अपने पुत्र को भी ज्योतिष की शिक्षा देना चाहते थे। मिश्र जी स्वभाव से प्रसन्नचित्त एवं हँसमुख थे। उन्हें अपने पिता के बिजनेस में कोई दिलचस्पी नहीं थी। बड़ी मेहनत और कठिनाई से उन्होंने प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण की और इंटरमीडिएट की पढ़ाई शुरू की, लेकिन परीक्षा में असफल होने के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और एक स्कूल में 20 रुपये प्रति माह की नौकरी की।

इसके बाद वह स्कूल उपनिरीक्षक बन गये। स्वास्थ्य बिगड़ने के कारण उन्हें यह नौकरी छोड़कर फिर से अध्यापन कार्य करना पड़ा। पढ़ाते-पढ़ाते उन्होंने एफ० ए० और बी० ए० की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीँ। जब असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ हुआ तो उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद कुछ दिनों तक उनका जीवन बड़े अभाव में व्यतीत हुआ। वे पुनः कानपुर के मारवाड़ी स्कूल में अध्यापक नियुक्त हो गये।

कुछ दिनों के बाद वे उसी विद्यालय के प्रधानाध्यापक भी बन गये, लेकिन प्रशासकों से मतभेद के कारण वे अधिक समय तक इस पद पर नहीं रह सके और इस्तीफा दे दिया। मिश्र जी ने स्वाध्याय से हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू, फारसी तथा बांग्ला भाषाओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। वे एक प्रतिभाशाली साहित्यकार थे। उन्होंने अपना जीवन हिन्दी और राष्ट्र की सेवा में समर्पित कर दिया।

मिश्र जी ने कई महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखने के साथ-साथ पत्र-पत्रिकाओं का भी कुशलतापूर्वक संपादन किया। मिश्र जी का उन भाषाओं पर पूरा अधिकार था जो उन्होंने अपने प्रयासों से सीखी थीं। ऐसा माना जाता है कि एक बार ईश्वरचंद्र विद्यासागर जब कानपुर आये तो मिश्र जी ने उनसे बांग्ला भाषा में ही बात की। उनके विविध ज्ञान की झलक हमें मिश्र जी की रचनाओं में मिलती है। मिश्र जी की मृत्यु 1894 में 38 वर्ष की अल्पायु में हो गयी।

Pratap narayan mishra ka sahityik parichay

भारतेंदु युग में खड़ी बोली हिंदी गद्य का उत्तरोत्तर विकास हुआ। भारतेंदु जी भाषा को ऐसा रूप दे रहे थे जिससे गद्य रचना सफल हो सके। वह अन्य गद्य लेखकों के साथ इस परियोजना पर काम कर रहे थे। इनमें पंडित प्रताप नारायण मिश्र एक कुशल गद्यकार थे। मिश्र जी को प्रारंभ में “लावनिया” और “ख्याल” पर उनके काम के लिए जाना जाता था, जिन्हें लोक साहित्य माना जाता था। धीरे-धीरे उन्होंने साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश किया। मिश्र जी पर भारतेंदु जी का महत्वपूर्ण प्रभाव था। जब गद्य रचना के क्षेत्र में उन्होंने कदम रखा तो भारतेन्दु ही उनके प्रेरणा स्रोत थे।

भारतेंदु की तरह मिश्र जी ने भी भाषा और शैली के संबंध में व्यावहारिकता को ध्यान में रखते हुए मध्यम मार्ग अपनाया। उन्होंने गद्य के लिए जटिल संस्कृत या अरबी-फ़ारसी शब्दों के स्थान पर जनता की समझ के करीब समझ में आने वाली भाषा को चुना। मिश्र जी ने अनेक मौलिक एवं अनूदित रचनाएँ प्रस्तुत कीं। गद्य के साथ-साथ पद्य में भी उनका योगदान है।

उन्होंने ‘ब्राह्मण’ और ‘हिन्दुस्तान’ पत्रों का सफलतापूर्वक संपादन किया और कानपुर में एक नाटक सोसायटी की स्थापना की। वह एक कुशल अभिनेता, लेखक, पत्रकार और कवि थे। इन्होने अपने छोटे से जीवन में लगभग 50 पुस्तकें लिखीं। मौलिक रचनाओं के अलावा मिश्रजी ने बांग्ला भाषा की अनेक रचनाओं का हिन्दी में सफल अनुवाद कर हिन्दी साहित्य के खजाने को समृद्ध किया।

प्रताप नारायण मिश्र की रचनाएँ

मिश्र जी ने अपने छोटे से जीवन में लगभग 40 पुस्तकों की रचना की। इनमें कई कविताएँ, नाटक, निबंध, आलोचनाएँ आदि शामिल हैं। उनकी रचनाएँ दो प्रकार की हैं: मौलिक और अनुवादित

प्रताप नारायण मिश्र भाषा शैली

भाषा

मिश्र जी ने सरल एवं समझने योग्य भाषा अपनाई है। उनकी भाषा में अनेक प्रचलित शब्दों को स्थान मिला है। वे संस्कृत, अरबी और फ़ारसी के कठिन और अप्रचलित शब्दों से दूर रहे। यत्र-तत्र मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग से उनकी भाषा सजीव हो गयी है। विदेशी भाषाओं के प्रचलित शब्दों को अपनाने में उन्हें कोई झिझक नहीं हुई। यह भाषा के स्वरूप के निर्माण का काल था। इस कारण मिश्र जी की भाषा में कुछ स्थानों पर व्याकरण संबंधी त्रुटियाँ हैं, फिर भी उनकी भाषा विषय के अनुकूल, पाठकों के लिए बोधगम्य और जीवंत है।

शैली

मिश्र जी के निबंधों में निम्नलिखित दो प्रकार की शैलियाँ पाई जाती हैं-

1. हास्य-व्यंग्यात्मक – यह मिश्र जी के निबंधों की प्रमुख शैली है। मिश्र जी का व्यंग्य तीखा और हास्य शालीन है। उनके सभी निबंधों में इसी शैली का प्रयोग हुआ है।

2. विचार- विवेचनात्मक – मिश्र जीस्वभाव से विनोदप्रिय थे| ‘हास्य-व्यंग्य शैली’ उनको प्रतिनिधि शैली है। अपने कुछ निबन्धों में आपने विचारात्मक तथा विवेचनात्मक शैलियों का प्रयोग किया है।

हिन्दी साहित्य में स्थान

मिश्र जी ने हिन्दी साहित्य की अविस्मरणीय सेवा की है। आपने गद्य और पद्य लिखकर साहित्य की समृद्धि में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया है। मिश्र जी अपने युग के सफल निबंधकार, नाटककार एवं सुयोग्य संपादक थे। मिश्र जी अपने महत्वपूर्ण कार्यों के लिए सदैव याद किये जायेंगे। प्रसिद्ध साहित्यकार बालमुकुंद गुप्त ने मिश्रजी के संबंध में लिखा है, ”हिंदी साहित्य के आकाश में हरिश्चंद्र के उदय के कुछ ही दिनों बाद एक ऐसे चमकते सितारे का उदय हुआ, जिसकी चमक देखकर लोग उन्हें दूसरा ‘चंद्र’ कहते थे। यह चमकीला सितारा था केवल प्रताप नारायण मिश्र।

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प्रताप नारायण मिश्र का निबंध कौन सा है?

प्रताप नारायण मिश्र का निबंध “शिवमूर्ति” भारतेंदु मंडल के लेखकों में पं. प्रताप नारायण मिश्र (24 सितम्बर 1856 – 6 जुलाई 1894) स्मृति में विशेष स्थान रखते हैं।

प्रताप नारायण के गुरु कौन थे?

प्रताप नारायण मिश्र भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी को अपना गुरु मानते थे।

प्रताप नारायण मिश्र कौन से युग के कवि हैं?

पं० प्रताप नारायण मिश्र भारतेन्दु युग के लेखक हैं।

पंडित प्रताप नारायण का जन्म कब हुआ?

इनका जन्म 1856 ई. में हुआ था जो।

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